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घर की याद करते हुए,
आमुक्ति ने कहा, “घर पोहोचने के बाद दोनों के ब्रम्हचर्य की परीक्षा के लिए फिर
राह देखनी पड़ी| समय पर फिर से मुझे माहवारी आई और मेरी दादी, सासुमा ने मेरी और
मेघश्याम की शिव पार्वती की तरह पूजा की| उसदिन दादीजी बड़ी खुश थी| मुझे भर-भर के
आशीर्वाद देते हुए कहा इस कुल का उद्धार करने वाले पुत्र की माँ बनना| इसके बाद
सही मायने में हम दोनों का वैवाहिक जीवन शुरू हुआ|”
“मेघश्याम के विचार
सुलझे हुए थे| घर के हर व्यक्ति के लिए उनके पास समय था| वो खुद अपनी माँ, दादी,
बड़ी माँ, काकी सबकी सेवा करते थे| तो जाहिर सी बात हैं मुझे कभी मेरी कोई भी सास
बोझ नहीं लगी| यही बात मेरे ससुरजी में भी थी| वे भी दादीजी और दादाजी की सेवा
करने से नहीं चुकते थे| यह बात हर उस लड़के को कही जाती थी जो विवाह योग्य हो रहा
हैं| पर आज ये बात कोई माँ बाप अपने बेटे को नहीं बताते और फिर वृद्धाश्रम में
छाती पिटते हैं की बहु ने बेटे को बिघाड दिया| सेवाभाव के बिज माँ-पिता को खुद
बेटे के मन में बोने पड़ते हैं, नहीं तो फिर उसकी पत्नी कभी सेवाभावी नहीं बनती,
भलेही वो कितनी ही धार्मिक क्यों न हो|”
“बस युही हसते-खेलते नए-नए
विवाह के पहले वर्ष में कई त्योहारों पर जोड़े से अलग-अलग पूजाए करते-करते और हर
रात्रि रतिक्रीड़ा का आनंद लेते-लेते १९२१ का काला साल उग आया| और केरल की धरती ने
इस साल कुछ ऐसा सहा जो ह्रदय पर आघात बन कर आज भी मुझे यातनाये देता हैं|”
लेखिका: रिंकू ताई
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