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अपनी सिसकियों को रोकते
हुए आमुक्ति ने कहा, “एर्नाद के बाहर जंगल में ही हम तीनो पर हमला किया गया| हमला
करने वालों के हाथों में खून से सनी नंगी तलवारे थी| हमला होते ही मेघश्याम ने
बैलगाड़ी तेजी से घने जंगल की और मोड़ दी| हम कैसे-तैसे एक खंडहर मंदिर में पोहोच
गए| उस खंडहर मंदिर की आभा प्रसन्न थी, पर न जाने कब से वहा पूजा नहीं हुई थी|
मेघश्याम ने वहा पर रहने लायक जगह बना ली थी| और देवरजी आसपास के जंगल में कुछ फल
और कंद लाने गए थे| बहुत देर तक वो नहीं आये तो मेघश्याम उन्हें देखने गए| रात्रि
बीत गयी दोनों का कोई पता न था| अगली सुबह मुझे भूख लगने पर मैं जंगल में कुछ खाने
मिलता हैं क्या ये देखने गयी| पर मुझपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा जब मैंने टुकड़े-टुकड़े
कीये हुए अपने पती और देवर के मृत शरीर देखे| उन दरिंदो ने तडपा-तड़पा कर दोनों को
मारा| उनकी हालत देख मेरा भी मर जाने का मन कर रहा था| पर मुझमें पल रही दो नन्हे
बालको ने मुझे ये करने से रोक दिया| मैंने दोनों के मृत शरीर के टुकडो को एक जगह
किया| और धीरे-धीरे आस-पास की लकडिया जमा की और उनपर जमा दी| पर बरसात ने मुखाग्नि
नहीं देने दी| वैसे ही उन्हें वहा छोड़ मैं खंडहर मंदिर में वापस लौट आई| अगली सुबह
धुप निकल आई तो मैं वापस उस जगह गयी वहा पर मैंने मेरे दिवंगत पति और देवर को
मुखाग्नि दी| और लौट गयी| उस खंडहर मंदिर में मैं एक महीने तक छिपी रही| जो भी
मिलता वो कहा लेती| कभी फल, तो कभी कंद, तो कभी कभी सिर्फ पानी के सहारे दिन
निकाला|”
लेखिका: रिंकू ताई
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