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अपने पती मेघशाम के
प्रती प्रेम जताते हुए आमुक्ति ने कहा, “मेघश्याम जैसे पती मिलना मेरा सौभाग्य था|
वो अंग्रेजी भाषा भी जानते थे| और चलते-चलते मुझे सिखा भी रहे थे| कभी हम जंगल के
रस्ते चलते, तो कभी एक गाव से दुसरे गाव खेत के रस्ते से चलते| जो भी मंदिर रस्ते
में आता हम दर्शन करते, पूजन करते और आगे बढ़ते| शाम होने के पहले किसी भी गाव या
कबिले तक पोहोचते थे| धर्मशालाओं में रुकते थे| भोजन के लिए किराणा और सब्जियों को
खरीदने के लिए अगर पैसे नहीं रहे तो दोनों मिलकर श्रम कर कुछ पारिश्रमिक जमा करते
थे और फिर अपनी मेहनत से कमाए धन से भोजन करते थे| और इसके लिए हम दोनों भी जो
मिले वो काम करते थे| ज्यादा संचय नहीं करना यह भी एक नियम था इस यात्रा का, क्यों
की जितना ज्यादा संचय करेंगे उतना बोझ ढोना पड़ता था और अगर बहोत सारा धन साथ में
रखा तो चोरी का भी डर रहता था|”
लेखिका: रिंकू ताई
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