आणीक न लगे मायिक पदार्थ । तेथें माझें आर्त्त नको देवा ॥ध्रु.॥
ब्रम्हादिक पदें दुःखाची शिराणी । तेथें दुश्चित झणी जडों देसी ॥२॥
तुका म्हणे त्याचें कळलें आम्हां वर्म । जे जे कर्मधर्म नाशवंत ॥३॥
तुकाराम महाराज द्वारा रचित यह अभंग भक्ति और वैराग्य की भावना को व्यक्त करता है। इसमें वे ईश्वर के प्रति अपनी समर्पण भावना और सांसारिक मोह-माया से दूरी की कामना करते हैं। आइए इसे पद-दर-पद हिंदी में समझते हैं:
मूल मराठी पाठ और हिंदी अर्थ:
समचरणदृष्टि विटेवरी साजिरी । तेथें माझी हरी वृत्ति राहो ॥१॥
अर्थ: "हे प्रभु! जहाँ आपके चरणों (पैरों) की समान दृष्टि (कृपा) पवित्र पंढरपुर (विट्ठल के मंदिर) में सुशोभित है, वहाँ मेरी (भक्ति की) चित्तवृत्ति हमेशा लगी रहे।"
भाव: तुकाराम यहाँ कहते हैं कि वे भगवान विट्ठल के चरणों में अपनी भक्ति को स्थिर रखना चाहते हैं, जहाँ ईश्वर की कृपा सभी पर समान रूप से पड़ती है।
आणीक न लगे मायिक पदार्थ । तेथें माझें आर्त्त नको देवा ॥ध्रु.॥
अर्थ: "मुझे और कोई सांसारिक वस्तुओं की जरूरत नहीं है। हे देव! वहाँ (आपके चरणों में) मेरा आर्त्त (सांसारिक संकट का पुकार) न हो।"
भाव: यहाँ तुकाराम सांसारिक सुखों और माया से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर के चरणों में उन्हें किसी सांसारिक चीज़ की चाहत या दुख की शिकायत नहीं चाहिए। यह पंक्ति अभंग का ध्रुवपद (मुखड़ा) भी है, जो बार-बार दोहराया जाता है।
ब्रम्हादिक पदें दुःखाची शिराणी । तेथें दुश्चित झणी जडों देसी ॥२॥
अर्थ: "ब्रह्मा आदि (उच्च) पद भी दुखों का मूल हैं। हे प्रभु! वहाँ (ऐसे पदों में) मेरा मन कभी न लगे।"
भाव: तुकाराम यहाँ कहते हैं कि ब्रह्मा जैसे उच्च देवताओं के पद भी अंततः दुखों का कारण बनते हैं, क्योंकि वे भी नश्वर हैं। वे प्रार्थना करते हैं कि उनका मन इन सांसारिक और अस्थायी पदों की ओर आकर्षित न हो।
तुका म्हणे त्याचें कळलें आम्हां वर्म । जे जे कर्मधर्म नाशवंत ॥३॥
अर्थ: "तुका कहते हैं कि हमें उस रहस्य का पता चल गया है, कि जो कुछ भी कर्म और धर्म (सांसारिक कर्तव्य) हैं, वे सब नाशवान हैं।"
भाव: तुकाराम यहाँ जीवन के गहरे सत्य को उजागर करते हैं कि सांसारिक कर्म और धर्म क्षणिक हैं। असली सुख और शांति केवल ईश्वर की भक्ति में है, जो शाश्वत है।
संपूर्ण भाव:
इस अभंग में तुकाराम महाराज भगवान विट्ठल के प्रति अपनी अनन्य भक्ति व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें सांसारिक सुख, पद-प्रतिष्ठा या माया की कोई चाह नहीं है। उनका एकमात्र लक्ष्य ईश्वर के चरणों में अपनी भक्ति को स्थिर करना है। वे यह भी समझाते हैं कि सांसारिक कर्म और धर्म नश्वर हैं, इसलिए असली शांति केवल ईश्वर में ही मिल सकती है। यह अभंग भक्ति के साथ-साथ वैराग्य और जीवन के सत्य को दर्शाता है।
No comments:
Post a Comment