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Wednesday, 26 March 2025

कस्तुरीमळवट चंदनाची उटी

राजस सुकुमार मदनाचा पुतळा । रविशशिकळा लोपलिया ॥१॥
कस्तुरीमळवट चंदनाची उटी । रुळे माळ कंठीं वैजयंती ॥ध्रु.॥
मुगुट कुंडले श्रीमुख शोभलें । सुखाचें ओतलें सकळ ही ॥२॥
कासे सोनसळा पांघरे पाटोळा । घननीळ सांवळा बाइयानो ॥३॥
सकळ ही तुम्ही व्हा गे एकीसवा । तुका म्हणे जीवा धीर नाहीं ॥४॥


यह तुकाराम महाराज द्वारा रचित एक सुंदर अभंग है, जिसमें वे भगवान विट्ठल के रूप-सौंदर्य और उनकी दिव्यता का वर्णन करते हैं। यह अभंग विट्ठल की आकर्षक छवि को चित्रित करता है और भक्त के मन की व्याकुलता को व्यक्त करता है। आइए इसे पद-दर-पद हिंदी में समझते हैं:
मूल मराठी पाठ और हिंदी अर्थ:
राजस सुकुमार मदनाचा पुतळा । रविशशिकळा लोपलिया ॥१॥  
अर्थ: "राजसी और कोमल (सुकुमार) रूप, मानो कामदेव की मूर्ति हो। सूर्य और चंद्र की किरणें (उसके सौंदर्य के सामने) मलिन पड़ गईं।"  
भाव: तुकाराम यहाँ विट्ठल के रूप को राजसी और अति सुंदर बताते हैं, जो कामदेव (प्रेम के देवता) की मूर्ति जैसा है। उनका सौंदर्य इतना अलौकिक है कि सूर्य और चंद्र की चमक भी उसके सामने फीकी पड़ जाती है।

कस्तुरीमळवट चंदनाची उटी । रुळे माळ कंठीं वैजयंती ॥ध्रु.॥  
अर्थ: "कस्तूरी की सुगंध और चंदन का लेप (उनके शरीर पर) है। गले में वैजयंती माला शोभायमान है।"  
भाव: यहाँ विट्ठल के शारीरिक सौंदर्य का वर्णन है। उनके शरीर पर कस्तूरी और चंदन की सुगंध है, और गले में वैजयंती माला (फूलों की माला) उनकी शोभा बढ़ाती है। यह पंक्ति अभंग का ध्रुवपद (मुखड़ा) है।

मुगुट कुंडले श्रीमुख शोभलें । सुखाचें ओतलें सकळ ही ॥२॥  
अर्थ: "मुकुट और कुंडल (कानों के आभूषण) से उनका श्रीमुख (सुंदर चेहरा) शोभायमान है। सब कुछ सुख से परिपूर्ण है।"  
भाव: विट्ठल का चेहरा मुकुट और कुंडलों से सुशोभित है, और उनका दर्शन करने से भक्त को परम सुख की अनुभूति होती है। यहाँ विठ्ठलकी दिव्यता और सौंदर्य का प्रभाव बताया गया है।

कासे सोनसळा पांघरे पाटोळा । घननीळ सांवळा बाइयानो ॥३॥  
अर्थ: "कमर पर सोने की किनारी वाला पीतांबर और पाटोळा (रेशमी वस्त्र) पहने हैं। हे गहरे नीले-साँवले रंग वाले (विट्ठल), हे बहनों!"  
भाव: तुकाराम विट्ठल के वस्त्रों और रंग का वर्णन करते हैं। वे उन्हें साँवले और सुंदर बताते हैं, और "बाइयानो" (बहनों) कहकर भक्तों को आत्मीयता से संबोधित करते हैं।

सकळ ही तुम्ही व्हा गे एकीसवा । तुका म्हणे जीवा धीर नाहीं ॥४॥  
अर्थ: "तुम (विट्ठल) सब कुछ एक साथ हो गए हो। तुका कहते हैं कि मेरे जीव (मन) को धैर्य नहीं है।"  
भाव: यहाँ तुकाराम कहते हैं कि विट्ठल में सारी सुंदरता, सुख और दिव्यता समाहित है। उनका सौंदर्य इतना प्रभावशाली है कि तुकाराम का मन अधीर हो उठता है, और वे उनके दर्शन के लिए व्याकुल हो जाते हैं।

संपूर्ण भाव:
इस अभंग में तुकाराम महाराज भगवान विट्ठल के अलौकिक सौंदर्य और आकर्षण का वर्णन करते हैं। वे उनके रूप, वस्त्र, आभूषण और सुगंध की प्रशंसा करते हैं, जो सूर्य-चंद्र को भी मात देता है। विट्ठल का यह दिव्य स्वरूप भक्त के मन को सुख और प्रेम से भर देता है, लेकिन साथ ही उसे अधीर और व्याकुल भी कर देता है। यह अभंग भक्ति के साथ-साथ ईश्वर के प्रति गहरी आसक्ति और तड़प को व्यक्त करता है।

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