हा आपको काफ़िर कह कर संबोधित किया हैं मैंने| आप भारतीय सिनेमा के लिए एक काफिर ही तो हैं| और "सिनेमा और समाज" इस लेख श्रृखला में आपको काफिर ही कहूँगी|
नमस्ते मैं हु रिंकू ताई और आपका स्वागत हैं मेरे इस ब्लॉग पर!
इस ब्लॉग में १९६६ की फिल्म "तीसरी आंख" के बारे में जानेंगे। यह फिल्म मारे गए गुलफाम इस कहानी पर आधारित है। फणीश्वर नाथ रेणु जो कि फिल्म के डायलॉग राइटर है उन्होंने ही मारे गए गुलफाम यह कहानी लिखी थी।
मूल कहानी का मुख्य किरदार गुलफाम है और फिल्म का मुख्य किरदार हीरामन हैं। फिल्म में किरदारों के नाम क्यों बदले यह तो फिल्म निर्देशक बासु भट्टाचार्य ही जाने! अगर आप जानते हो तो कृपया कमेंट करना।
कवि शैलेंद्र इस फिल्म के निर्माता है। शंकर जयकिशन का संगीत फिल्म को दिया गया है। सुब्रता मित्र ने फिल्म की सिनेमेटोग्राफी की है। फणीश्वर नाथ रेणु के साथ नबेंदु घोष ने स्क्रीनप्ले लिखा है। राज कपूर और वहीदा रहमान यह दोनों फिल्म के मुख्य कलाकार है।
राज कपूर ने बैलगाड़ी चलाने वाले का किरदार निभाया है। उस गांव के बैलगाड़ी हांकने वाले लड़के की तीन कसमो पर यह फिल्म बनी है। वहीदा रहमान जिसका नाम फिल्म में हीराबाई है, वह एक नौटंकी में नृत्य करने वाली है।
एक जमाना था जब गांव गांव घूमकर कुछ नौटंकी करने वाले लोगों का मनोरंजन करते थे तथा यह उनका पेशा उन्हें रोजगार भी देता था। इस सिनेमा में यह बताया गया है कि नौटंकी में काम करने वाली महिला हमेशा चरित्रहीन ही रहती है। और महिलाओं ने ऐसे काम नहीं करना चाहिए।
सवर्ण ठाकुर विक्रम सिंह को हीराबाई के जीवन का खलनायक बताया जाता है। यह भी खुलकर बताया गया है कि हीराबाई को चंद रुपयों के लिए बचपन में ही अगवा कर नौटंकी करने वाले को बेचा जाता है और यह नौटंकी करने वाला अपनी कंपनी की महिलाओं से वैश्या व्यवसाय करवाता है।
नौटंकी यह पेशा विशेष समुदाय के लोग ब्रिटिश राज में भी किया करते थे और स्वतंत्रता मिलने के बाद भी किया करते थे। नाटक या नौटंकी एकतरह थियेटर परफॉर्मिंग एक्ट है। फिल्म में अंत में हीरो के मन में नौटंकी करने वाली महिलाओं के प्रति घृणा बताई गई है और इसी के चलते वह तीसरी कसम लेता है कि आगे से नौटंकी करने वालों को वह अपनी बैलगाड़ी में कभी सवार होने नहीं देगा।
पहली दो कसमे कानून के पालन के लिए वह लेता है। जैसे चोरी का माल या गैर कानूनी चीजें वह कभी अपनी बैलगाड़ी में ढोएगा नहीं। दूसरी कसम अपनी बैलगाड़ी में वह कभी बांबू जैसी भारी वस्तु या कोई अन्य वस्तु जिसका वजन जरूरत से ज्यादा है वो ढोएगा नही। दोनों कसमे कानून के दायरे में रहकर वह लेता है। अब इनके साथ जब वह तीसरी कसम लेता है कि वह नौटंकी करने वाली महिला को कभी अपनी बैलगाड़ी में सवारी नहीं देगा तब दर्शकोंके मन में कहीं न कहीं यह बात घर कर जाती है कि नौटंकी करने वाली या कोई भी स्टेज आर्ट परफॉर्म करने वाली महिला चरित्रहीन होती है और उनसे दूर ही रहना चाहिए।
भले ही फिल्म में यह बताया गया है कि कामकाजी महिलाओं को लैंगिक अत्याचार सहने पड सकते है, पर यह बता देना कि कोई कलाकार महिला चरित्रहीन होती है बिल्कुल गलत है। यह कहीं ना कहीं अपने पैरों पर खड़े होकर जीवन यापन करने के लिए किसी भी तरह का काम करने वाली सभी महिलाओं पर चरित्रहीन होने का लेबल अनजाने में लगाया गया है।
यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। फिर भी इस फिल्म को कई पुरस्कार मिले। बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भारतीय सरकार ने इस फिल्म को दिया। यह फिल्म मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भारत की तरफ से नौमीनेट की गई थी। इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में कौन सी फिल्म भेजी जाएगी यह तय करने के लिए भारतीय सरकार एक समिति गठित करती है। बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन अवॉर्ड्स में इस फिल्म को बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर और बेस्ट एक्ट्रेस यह पुरस्कार मिले। जो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई कमाई नहीं कर पाई उस फिल्म को १९६६-६७ में इतने पुरस्कार कैसे मिलते हैं? और यह फिल्म भारत की तरफ से एक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में कैसे जाती है? यह तो समझ के परे हैं। अगर आपको समझा हो तो कृपया कमेंट कर दीजिए।
यहाँ तक पढ़ने के लिए धन्यवाद!
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जय माता दी!
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