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Thursday, 27 March 2025

अगोचरी बोलिलों आज्ञेविण आगळें

अगोचरी बोलिलों आज्ञेविण आगळें । परी तें आतां न संडावें कृपाळू राउळें ॥१॥
जाईल रोकडा बोल न पुसती आम्हां । तुझा तुझें म्हणविलें पाहा पुरुषोत्तमा ॥ध्रु.॥
न व्हावा न वजावा न कळतां अन्याय । न धरावें तें मनीं भलता करा उपाय ॥२॥
म्हणे तुकयाबंधु हीन मी म्हणोनि लाजसी । वारा लागों पाहाताहे उंच्या झाडासी ॥३॥


यह तुकाराम महाराज द्वारा रचित एक भावनात्मक और आत्मनिरीक्षण से भरा अभंग है, जिसमें वे अपनी भक्ति और भगवान के प्रति समर्पण को व्यक्त करते हैं। साथ ही, वे अपनी कमियों को स्वीकार करते हुए भगवान की कृपा की याचना करते हैं। आइए इसे पद-दर-पद हिंदी में समझते हैं:
मूल मराठी पाठ और हिंदी अर्थ:
अगोचरी बोलिलों आज्ञेविण आगळें । परी तें आतां न संडावें कृपाळू राउळें ॥१॥  
अर्थ: "मैंने अनजाने में आज्ञा के बिना कुछ अनुचित बोल दिया। परंतु अब उसे छोड़ें नहीं, हे कृपालु राउळे (विट्ठल)।"  
भाव: तुकाराम कहते हैं कि उन्होंने भगवान की आज्ञा के बिना कुछ ऐसा कहा जो शायद ठीक नहीं था। अब वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि उनकी इस भूल को नजरअंदाज न करें, बल्कि अपनी कृपा से उसे सुधारें। "राउळे" यहाँ विट्ठल का आत्मीय संबोधन है।
जाईल रोकडा बोल न पुसती आम्हां । तुझा तुझें म्हणविलें पाहा पुरुषोत्तमा ॥ध्रु.॥  
अर्थ: "मेरा सारा बोल (वचन) नष्ट हो जाएगा, हमसे कुछ मत पूछ। जो तेरा है, उसे तेरा ही कहा, हे पुरुषोत्तम, देख ले।"  
भाव: तुकाराम कहते हैं कि उनके शब्दों का कोई मूल्य नहीं है, और वे भगवान से कहते हैं कि उनसे कुछ न पूछें। जो कुछ भी है, वह भगवान का ही है, और उन्होंने उसे भगवान को समर्पित कर दिया है। यह ध्रुवपद (मुखड़ा) उनकी विनम्रता और समर्पण को दर्शाता है।
न व्हावा न वजावा न कळतां अन्याय । न धरावें तें मनीं भलता करा उपाय ॥२॥  
अर्थ: "न होना चाहिए, न बिगड़ना चाहिए, अनजाने में अन्याय न हो। उसे (गलती को) मन में न रखें, कोई अच्छा उपाय करें।"  
भाव: तुकाराम प्रार्थना करते हैं कि उनकी ओर से कोई गलती या अन्याय न हो। अगर अनजाने में ऐसा हुआ भी, तो भगवान उसे मन में न रखें और उसका कोई समाधान करें। यह उनकी नम्रता और सुधार की आकांक्षा को दिखाता है।
म्हणे तुकयाबंधु हीन मी म्हणोनि लाजसी । वारा लागों पाहाताहे उंच्या झाडासी ॥३॥  
अर्थ: "तुकया का बंधु (भगवान) कहता है कि मैं हीन हूँ, इसलिए लज्जित हूँ। हवा ऊँचे वृक्ष को देख रही है (उसे प्रभावित करने की कोशिश कर रही है)।"  
भाव: तुकाराम खुद को हीन और छोटा मानते हैं, जिसके कारण उन्हें लज्जा होती है। वे कहते हैं कि जैसे हवा ऊँचे पेड़ को हिलाने की कोशिश करती है, वैसे ही वे भगवान की महानता के सामने अपनी छोटी स्थिति को देखते हैं। यह उनकी विनम्रता और भगवान के प्रति श्रद्धा का प्रतीक है।
संपूर्ण भाव:
इस अभंग में तुकाराम महाराज अपनी मानवीय कमियों को स्वीकार करते हैं और भगवान विट्ठल से कृपा की याचना करते हैं। वे कहते हैं कि उन्होंने अनजाने में कुछ अनुचित कहा हो सकता है, लेकिन वे चाहते हैं कि भगवान उसे ठीक करें। वे अपनी वाणी और कर्मों को भगवान को समर्पित करते हैं, यह मानते हुए कि उनका सब कुछ भगवान का ही है। वे खुद को हीन और लज्जित महसूस करते हैं, पर भगवान को अपना बंधु (भाई) मानकर उसकी शरण में सुधार और रक्षा की प्रार्थना करते हैं। यह अभंग उनकी गहरी भक्ति, विनम्रता, और आत्मसमर्पण को व्यक्त करता है।

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