Followers

Tuesday, 25 March 2025

सावित्रीबाई फुले के जीवन के प्रेरक प्रसंग



1. शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प और ज्योतिराव का सहयोग (1840 के दशक की शुरुआत)
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को सतारा जिले के नाइगांव में एक किसान परिवार में हुआ था। नौ साल की उम्र में, 1840 में, उनकी शादी ज्योतिराव फुले से हुई, जो उस समय 13 वर्ष के थे। उस समय सावित्रीबाई अनपढ़ थीं। एक बार, सावित्रीबाई ने एक अंग्रेजी पुस्तक को देखा और उसे पढ़ने की इच्छा जताई। उनके पिता खंडोजी नेवासे ने यह देखकर गुस्से में पुस्तक को खिड़की से बाहर फेंक दिया। लेकिन सावित्रीबाई ने उस पुस्तक को चुपके से उठा लिया और उसे पढ़ने का संकल्प किया। ज्योतिराव ने उनकी इस इच्छा को देखा और उन्हें पढ़ाने का फैसला किया। ज्योतिराव ने सावित्रीबाई को घर पर पढ़ाना शुरू किया, जो उस समय एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि पत्नी को पढ़ाना सामाजिक रूप से अस्वीकार्य था। सावित्रीबाई ने बाद में अहमदनगर (आजका अहिल्यानगर) में एक अमेरिकी मिशनरी संस्थान और पुणे में नॉर्मल स्कूल में शिक्षक प्रशिक्षण लिया, और 1847 में अपनी चौथी परीक्षा उत्तीर्ण की। यह प्रसंग उनके शिक्षा के प्रति दृढ़ संकल्प और ज्योतिराव के प्रगतिशील विचारों को दर्शाता है।
स्रोत: सावित्रीबाई फुले की स्वयं की रचनाओं में इस घटना का उल्लेख है, विशेष रूप से उनकी कविताओं में, जहां उन्होंने शिक्षा के प्रति अपनी ललक को व्यक्त किया है। इतिहासकार सूर्यकांत वाघमोर की पुस्तक "चैलेंजिंग नॉर्मलाइज्ड एक्सक्लूजन: ह्यूमर एंड होपफुल रेशनलिटी इन दलित पॉलिटिक्स" (2016) में भी इस घटना का उल्लेख है।
नोट: सावित्रीबाई फुले के बारे मे यह कहा गया हैं की वे पहले अनपढ़ थी। उनके पिता ने एक अंग्रेजी पुस्तक को खिड़की से बाहर फेक दिया जो वे पढ़ना चाहती थी। पर उस पुस्तक का विवरण किसी भी जगह नहीं मिलता। उनके पिता ने उन्हे अंग्रेजी पुस्तक रोकने से क्यों रोका इसपर कई कारण दिए जाते हैं पर कोई ये कोई नहीं कहता की उस समय का भारतीय समाज अंग्रेजों के अत्याचारों से पीड़ित था इसीलिए अंग्रेजी भाषा का भी विरोध करता था। उनके पिता के विरोध के इस कारण को भी खोजना चाहिए।

2. पहला लड़कियों का स्कूल स्थापित करना और सामाजिक विरोध का सामना (1848)
1848 में, सावित्रीबाई और ज्योतिराव ने पुणे के भिडे वाडा में भारत का पहला लड़कियों का स्कूल स्थापित किया। यह स्कूल 1 जनवरी 1848 को शुरू हुआ, जिसमें विभिन्न जातियों की नौ छात्राएं थीं। यह स्कूल अंग्रेजी भाषा की भी शिक्षा देती थी। एक जातिनिरपेक्ष, अंग्रेजी भाषा पढ़ाने वाली कन्या स्कूल के लिए सावित्रीबाई को भारी सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा। जब वे स्कूल जाती थीं, तो लोग उन पर पत्थर फेंकते, गंदगी डालते, और अपशब्द कहते थे। सावित्रीबाई ने इस विरोध को सहन करने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया—वे अपने साथ एक अतिरिक्त साड़ी ले जाती थीं, ताकि स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल सकें। इस कठिनाई के बावजूद, उन्होंने पढ़ाना जारी रखा और स्कूल को सफलतापूर्वक चलाया। 1851 तक, उन्होंने और ज्योतिराव ने पुणे में तीन स्कूल स्थापित किए, जिनमें लगभग 150 छात्राएं पढ़ती थीं। यह प्रसंग उनके साहस और शिक्षा के प्रति उनके अटूट समर्पण को दर्शाता है।
स्रोत: यह जानकारी पुणे के ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स में दर्ज है, जो उस समय के शैक्षिक सुधारों को दस्तावेजित करते हैं। इतिहासकारों की पुस्तकों में, जैसे कि "सावित्रीबाई फुले: जीवन के विविध आयाम" (2020), इस घटना का विस्तृत वर्णन है।
नोट: यह घटना कई जगहों पर लिखी गई हैं। पर ये कभी नहीं बताया गया की वे नौ लड़कियां कौन थी और किस जाती की थी? सावित्रीबाई फुले का विरोध करने वाले लोग कौन थे, किस जाती के थे? इसपर भी कोई सटीक जानकारी नहीं हैं। बस यही कहा जाता हैं की ब्राम्हणो ने विरोध किया, पर उनके नाम किसी को भी पता नहीं हैं।

3. कविता के माध्यम से सामाजिक जागरूकता (1854)
सावित्रीबाई न केवल एक शिक्षिका थीं, बल्कि एक कुशल कवयित्री भी थीं। 1854 में, जब वे 23 वर्ष की थीं, उन्होंने अपना पहला कविता संग्रह "काव्यफुले" प्रकाशित किया, जिसमें 41 कविताएं थीं। इस संग्रह में उन्होंने सामाजिक समस्याओं, जैसे जातिगत भेदभाव, लैंगिक असमानता, और शिक्षा की कमी, को उजागर किया। उनकी कविताएं निसर्ग, नैतिकता, और सामाजिक सुधार पर केंद्रित थीं। एक कविता में, उन्होंने महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया। उनकी दूसरी पुस्तक, "बावनकशी सुबोध रत्नाकर", 1891 में प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने ज्योतिराव के जीवन और उनके सामाजिक कार्यों का वर्णन किया। उनकी कविताओं को ब्रिटिश सरकार ने भी मान्यता दी, और उन्हें "आधुनिक मराठी कविता की जननी" कहा गया। यह प्रसंग उनकी साहित्यिक प्रतिभा और सामाजिक जागरूकता फैलाने के उनके प्रयासों को दर्शाता है।
स्रोत: सावित्रीबाई की स्वयं की पुस्तकें "काव्यफुले" (1854) और "बावनकशी सुबोध रत्नाकर" (1891) इस जानकारी का प्राथमिक स्रोत हैं। इतिहासकारों ने उनकी कविताओं का विश्लेषण अपनी पुस्तकों में किया है, जैसे कि "सावित्रीबाई फुले, जीवन एवं संघर्ष" (2020)।

नोट: सावित्रीबाई का अपने साथ दूसरी साड़ी ले जाने का ये तरीका ये बताता हैं की उन्होंने कभी भी अपने शरीर को अभद्रता के साथ प्रदर्शित नहीं किया। वे उसी शालीन और संस्कारी लिबास मे कन्याओ को पढ़ाती थी जो एक महिला के चरित्र के अनुसार था। वे कभी अभद्रता को बढ़ावा नहीं देती थी।

4. बालहत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना (1854)
सावित्रीबाई ने सामाजिक सुधार के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उस समय विधवाओं और बलात्कार पीड़िताओं के साथ होने वाले अत्याचारों को देखते हुए, उन्होंने 1854 में पुणे में "बालहत्या प्रतिबंधक गृह" की स्थापना की। यह संस्था गर्भवती विधवाओं और पीड़ित महिलाओं को आश्रय प्रदान करती थी, ताकि वे अपने बच्चों को जन्म दे सकें और उनकी हत्या न हो। उस समय, सामाजिक दबाव के कारण ऐसी महिलाएं अक्सर अपने नवजात शिशुओं की हत्या कर देती थीं। सावित्रीबाई ने न केवल इन महिलाओं को आश्रय दिया, बल्कि उनके बच्चों की परवरिश में भी मदद की। उन्होंने और ज्योतिराव ने एक बच्चे को गोद लिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया, जो बाद में डॉक्टर बना। यह प्रसंग उनकी करुणा और सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने के उनके प्रयासों को दर्शाता है।
स्रोत: यह जानकारी पुणे के ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स में दर्ज है, जो उस समय के सामाजिक सुधार आंदोलनों को दस्तावेजित करते हैं। इतिहासकार डॉ. सिद्धार्थ की पुस्तक "सावित्रीबाई फुले, जीवन एवं संघर्ष" (2020) में इस घटना का उल्लेख है।
नोट: सावित्रीबाई की यह सेवा बिना किसी भेदभाव के थी। वे हर महिला को आश्रय देती और उसके नवजात बालक का भी पोषण करती। जातिनिरपेक्ष सावित्रीबाई फुले के विचारों को हर कोई अपनाए, इसी मे समाज और देश की भलाई हैं।

5. प्लेग के दौरान सेवा और बलिदान (1897)
1897 में, जब पुणे में प्लेग की महामारी फैली, सावित्रीबाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत के साथ मिलकर एक क्लिनिक स्थापित किया, जहां वे मरीजों की देखभाल करती थीं। उस समय चिकित्सा सुविधाओं की कमी थी, और लोग भयभीत थे। सावित्रीबाई ने बिना किसी डर के मरीजों की सेवा की। एक दिन, उन्होंने एक बीमार बच्चे को अस्पताल ले जाने के लिए उसे अपनी पीठ पर उठाया। इस दौरान वे स्वयं प्लेग से संक्रमित हो गईं। 10 मार्च 1897 को, 66 वर्ष की आयु में, सावित्रीबाई की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु उनके निस्वार्थ सेवा और बलिदान की भावना का प्रतीक है।
स्रोत: यह जानकारी पुणे के ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स में दर्ज है, जो 1897 के प्लेग महामारी के दौरान सामाजिक कार्यों को दस्तावेजित करते हैं। इतिहासकारों की पुस्तक "सावित्रीबाई फुले: जीवन के विविध आयाम" (2020) में इस घटना का वर्णन है।
नोट: सावित्रीबाई को उस जमाने मे नारीवादी कहा जाता था। उस समय की विषमता को खत्म करना बहुत मुस्किल काम था। आज भी नारीवाद हैं। पर उसका स्वरूप और आधुनिक नारीवादियों की सोच मे सेवा और बलिदान की भावना वैसी नहीं हैं जैसी प्रखर और निर्मल सावित्रीबाई की थी।

संदर्भ सूची
  1. सावित्रीबाई फुले, "काव्यफुले", 1854, पुणे।
  2. सावित्रीबाई फुले, "बावनकशी सुबोध रत्नाकर", 1891, पुणे।
  3. सूर्यकांत वाघमोर, "चैलेंजिंग नॉर्मलाइज्ड एक्सक्लूजन: ह्यूमर एंड होपफुल रेशनलिटी इन दलित पॉलिटिक्स", 2016, सेज पब्लिकेशन्स।
  4. डॉ. सिद्धार्थ, "सावित्रीबाई फुले, जीवन एवं संघर्ष", 2020, ग्रंथाली प्रकाशन।
  5. "सावित्रीबाई फुले: जीवन के विविध आयाम", 2020, महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल।
  6. पुणे के ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स, 1848-1897, महाराष्ट्र राज्य अभिलेखागार।


No comments:

Post a Comment

नितेश तिवारी की रामायण

🚨 #RamayanaGlimpseTomorrow 🚨   नितेश तिवारी की रामायण का ग्लिम्प्स कल, 3 जुलाई 2025 को रिलीज़ हो रहा है, लेकिन रणबीर कपूर (राम) और साई पल्...